तन्त्रोक्त अजपा-साधना
अजपा-साधना का दूसरा नाम परोपासना है। इससे ही जीव के बन्धन का क्षय होता है। कहा है-
"बिना जपेन देवेशि जपो भवति मन्त्रिण:।
अजपेय तत: प्रोक्ता भवपाश निकृन्तनी।।
जीव दिन-रात्रि में २१,६०० बार श्वास लेता है, जो मूलाधार आदि छ: चक्रों में होकर प्रवाहित होता है। अतएव चक्रों में कल्पित देवताओं गणेश, ब्रह्मा, विष्णु, शिव, जीव, परमात्मा, गुरु का आरोह एवं अवरोह क्रम से यथा समय चिन्तन-ध्यान कर जप की कल्पना करनी चाहिए। प्रात: उठ कर साधक को पूर्व अहो-रात्रि के अजपा का समर्पण करने(समर्पण की विधि एक स्वतन्त्र लेख में दुँगा) के बाद आगामि अजपा का संकल्प ग्रहण करना चाहिए। उठने के बाद सबसे पहले गुरु के लिए निम्न चार श्लोकों का उच्चारण करें-
“गुरु: ब्रह्मा गुरु: विष्णु गुरु: देव: महेश्वर:।
गुरु: साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नम:।।
अखण्ड मण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नम:।।
नमोस्तु गुरवे तस्मै स्वेष्ट देव स्वरूपिणे।
यस्य वाक् सकलं हन्ति विषं संसार संज्ञितम्।।
अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया।
चक्षु: उन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नम:।।
इसके बाद दक्षिणामूर्त्ति के सिद्ध मन्त्र(गुरु से प्राप्त करें) का १ माला जप करें। इसके बाद इष्ट-मन्त्र का १ माला जप कर प्रत्येक श्वास-प्रश्वास को जप का रूप कल्पित करने के लिए संकल्प करें-
"ॐ देवीमान रीत्या प्रवर्तमानेन ब्रह्मणोह्णि द्वितीय परार्धे……अमुक गोत्रस्य अमुक नामो ऽहं अद्येह पूर्वे द्यु: नासापुट नि:सृतोच्छ्वास नि:श्वासात्मकं षट्शताधिकैक विंशतिसहस्त्र संख्यका अजपा गायत्री जपं मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा चक्र, ब्रह्मरन्ध्र स्थितेभ्यो गणपति, ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, जीव, गुरु परमात्मेभ्यो, शुद्ध सरस्वती, लक्ष्मी, गौरी, प्राणशक्ति:, ज्ञानशक्ति:, चित्शक्ति समेतेभ्यो: यथासंख्यं षट्शतं, षट्सहस्त्रं, षट्सहस्त्रं, षट्सहस्त्रं, सहस्त्रमेकं, सहस्त्रमेकं, सहस्त्रमेकं प्रत्येकं निवेदयामि इति निवेद्य अद्य प्रात:कालाद आरभ्य द्वितीय काल पर्यन्तं नासापुट नि:सृत उच्छ्वास नि:श्वासात्मकम षट्शताधिकैकं विंशति सहस्त्रं संख्याकं अजपा गायत्री जपं अहोरात्रेण अहं करिष्ये।"
इसके बाद ह्सां, ह्सीं, ह्सूं, ह्सैं, ह्सौ:, ह्स: मन्त्र के द्वारा करन्यास और हृद्यादिन्यास करे। इसके बाद निम्न ध्यान करे-
"अग्नी सोम गुरु द्वयं प्रणवकं विन्दु त्रिनेत्रोज्ज्वलं,
भास्वद्रूप मुखं शिवांघ्रि युगलं पार्श्वस्थ सूर्यानिलम्।
उद्यद्भास्कर कोटि कोटि सदृशं हंसं जगद् व्यापिनम्,
शब्दं ब्रह्ममयं हृदम्बुज परे नीडे संस्मरेत्।।"
इसके बाद अष्टाक्षर आत्म-मन्त्र(गुरु से प्राप्त) का १ माला जप कर हंस-गायत्री(गुरु से प्राप्त) का १ माला जप करे। इस प्रकार अनुष्ठान करने से सम्पूर्ण श्वास प्रश्वास प्रक्रिया जप के रूप में परिणत हो जाती है।