चक्रवेध के क्रम में सर्वप्रथम अकुल अथवा विषुवत् का नाम आता है। इसके अनन्तर अष्टदल और उसके पश्चात् षड्दलविशिष्ट कुलपद्म का स्थान है। इसके ऊपर मूलाधार है। इस मूलाधार के ऊपर हृल्लेखा अथवा शक्ति का स्थान है। यह स्थान अनंगादि देवताओं से परिवेष्टित होकर मूलाधार से ढाई अँगुल ऊपर नीलवर्ण की कर्णिका के अन्दर प्रतिष्ठित रहता है। हृल्लेखा से दो अँगुल ऊपर स्वाधिष्ठान चक्र स्थित है। इसके पश्चात् क्रमशः मणिपुर , अनाहत , विशुद्धि और आज्ञाचक्र है। मूलाधार में अग्निबिम्ब , अनाहत में सूर्यबिम्ब और विशुद्धि में चन्द्रबिम्ब का दर्शन होता है। आज्ञाचक्र के ऊपर बिन्दु , अर्धचन्द्र , निरोधिका , नाद , नादान्त , शक्ति , व्यापिका , समना , और उन्मना नामक भूमियाँ हैं। उन्मना तक काल की कलाएँ, तत्त्व, देवता और मन सर्वदा निरुद्ध हो जाते हैं। तन्त्र-ग्रन्थों में इसी का निर्वाणात्मक रुद्रवक्त्र के नाम से वर्णन है।
यह अंतिम भूमि विश्वातीत है और यही वह सदाशिवरूपी आसन है जिस पर महाकामेश्वराङ्कनिलया महाकामेश्वरी विराजती हैं।