तन्त्र साधना में बलि का महत्व क्या है यह जानना आवश्यक है । ‘महाकाल-संहिता’ में बलिदान की आवश्यक्ता बताते हुए कहा है कि ऐसा कोई देव देवी या काल नहीं है, जो बलि की इच्छा नहीं रखता। काल के जो अंश संवत्, अयन, मास, पक्ष, दिन, रात, तिथि, वार और प्रहर आदि हैं, वे अमूर्त्त होते हुए भी बलि की इच्छा रखते हैं, फिर देव-योनियों का क्या कहना। वनस्पति, औषधि, लता, तरू, गुल्म, पर्वत आदि स्थावर-जङ्गम सभी बलि की आकांक्षा रखते हैं।
यहीं बलि के दो भेद बताये गये हैं- (१) श्रौत, (२) आगमिक । श्रौत बलि वेदोक्त मन्त्र द्वारा और आगमिक बलि तन्त्रोक्त मन्त्र द्वारा दी जाती है।
मेरु-तन्त्र में बलि के तीन भेद बताये हैं- (१) तान्त्रिक, (२) स्मार्त्त और (३) वैदिक। वैदिक बलि मेॆ माष(उड़द) के समान ओदन(चावल) की बलि रोचना से युक्त करके दी जाती है, क्रूर देवता को वटक(दही-बड़ा) से युक्त बलि का विधान है। स्मार्त्त मेॆ कुष्माण्ड(कुम्हड़ा), नारिकेल, बिल्व, इक्षु को वस्त्र में लपेट कर छुरी आदि द्वारा छेदन किया जाता है। तान्त्रिक बलि आठ प्रकार की है- (१) नर, (२) महिष, (३) कोल(शूकर), (४) छाग, (५) अवि: (६) सारस, (७) कपोत, (८) कुक्कुट।
‘गोमेध’ नामक यज्ञ में श्वेत वृष, ‘नरमेध’ मेॆ नर, ‘गजक्रान्त’ में गज, ‘अश्वमेध’ में अश्व, और ‘शंखचूड़’ में हस्ती के उपयोग का वर्णन शास्त्रों में है।
बलिदान के काम्य प्रयोग से आयु-वृद्धि, रोग-शान्ति, शत्रु पर विजय, धन की प्राप्ती, सिद्धि की प्राप्ती और स्वर्ग में निवास निश्चित होता है। निष्काम भाव से बलि देने पर मोक्ष की प्राप्ती होती है।