कौलाश्रम या अवधूताश्रम
तन्त्र की एक प्रसिद्ध उक्ति है- 'आगमं पञ्चमो वेदा: कौल पञ्चाश्रमा:' – अर्थात् आगम पाँचवा वेद है और कौलाश्रम पाँचवा आश्रम। यद्यपि कौलधर्म के अतिगोपनीय होने के कारण इसका प्रकाश सर्वसाधारण के लिए नहीं किया जा सकता तथापि मैं संकेत में, जो अधिकारियों के समझ में आ जायेगा, इस अवधूत आश्रम के विषय में कुछ प्रकाश डालुँगा। अवधूत आश्रम समस्त आश्रमों में सर्वश्रेष्ठ है। अवधूत को सन्यासी समझने की भूल न करे। यह सन्यास के भी बाद की अवस्था है। अवधूत आश्रम में साधन कुलयोग से होता है और इससे साधक को विमुक्ति लाभ मिलता है। ज्ञान के पूर्ण उदय होने पर साधक निज-कौलिकी की अनुमति से उसकी पूजा कर कुँडली-शक्ति के विवर में यथाविधि योग का अभ्यास करे। इस अभ्यास से साधक जरा-मरणादि दु:खो से मुक्त होकर भवसागर को पार करता है। अवधूत जो कुछ भी खाये-पिये उसे कुण्डलिनी के मुख में प्रदान करे। ऐसा करने से वह सिद्ध होता है। वह अपने आप को भैरव-रूप समझे और सदा यह भावना करे-
भैरवोऽहं न चान्योऽस्मि न चान्यो मत्-पर: क्वचित्।
तन्त्र-मन्त्रार्चनं सर्वं मयि जातं न चान्यथा।।
शिवोऽहं भैरवानन्दोमत्तोऽहं कुलनायक:।
पूर्णोऽहं भैरवश्चाहं नित्यानन्दोऽहमव्यय:।।
निरञ्जनस्वरूपोऽहं निर्विकारो ह्यहं प्रभु:।
सर्वशास्त्राभियुक्तोऽहं सर्वमन्त्रार्थवारग:।।
कुलाश्रम का रहस्य मातृजारवत् गोप्य रखने की आज्ञा शास्त्र देता है अत: ज्यादा प्रकाश नहीं कर सकता। इस सर्वश्रेष्ठ आश्रम का पूर्ण रहस्य तो कौल-गुरु के मुख से ही ज्ञेय है।