तन्त्र शास्त्र में क्रम-दीक्षा का बड़ा महत्व दिया गया है। इसमें मन्त्रों का षट्-चक्र शोधन नहीं होता। यह दीक्षा सिर्फ कौल-गुरु की अद्वितीय कृपा से ही उपलब्ध होती है। इसमें दिवस, मास और वर्षों के क्रम से दीक्षा और अभिषेक होते रहते हैं, अतएव इसका नाम क्रम-दीक्षा है। जैसे पढने वाला छात्र प्रतिवर्ष अगली श्रेणी में चढता जाता है और जो बहुत हीं योग्य होता है, उसे वर्ष भर में ‘डबल प्रमोशन’ भी मिल जाता है।उसी प्रकार गुरुदेव शिष्य की योग्यता देखकर कभी एक वर्ष में और कभी वर्ष में दो-तीन बार एक दीक्षा से दूसरी दीक्षा के स्तर में पहुँचाते हैं और अन्त में श्रीनाथ-कृपा द्वारा उसका दीक्षा-कार्य सम्पूर्ण हो जाता है। इस दीक्षा का क्रम सामान्य लोगों के लिए नहीं है। इस दीक्षा के विषय में शास्त्र क्या कहते हैं यह देखे:
यथा स्वल्प-सुखे मग्नो न प्राप्नोति महत् सुखम्।
तथा सिद्धौ निमग्नस्य मुक्तिर्दूरे प्रवर्तते।।
तस्मात् सिद्धिस्तृणी-कृत्य भजेच्छ्री-परमेश्वरीम्।
अल्पं तप: क्षणान्नश्येत् मध्यमं चापि गर्वत:।।
अर्थात् जो मनुष्य सर्वदा यत्-किञ्चिन्मात्र सुख से सन्तुष्ट रहता है, वह बड़े सुख से वंचित रहता है। इसी प्रकार जो साधक संसार को सिद्धि दिखाना हीं परम कर्त्तब्य समझता है, उस साधक से मुक्ति कोसों दूर रहती है। अतएव सिद्धियों को तिनके के समान तुच्छ विचार कर, प्रणत-जन-शंकरी परमेश्वरी का आराधन करना हीं साधक को श्रेयस्कर है।
शिवत्व के लिए षडाम्नाय का ज्ञान आवश्यक है और षडाम्नाय का यथार्थ ज्ञान सिर्फ और सिर्फ क्रम-दीक्षा से ही सम्भव है।
एक महाविद्या के आश्रय मेॆ रह कर भिन्न-भिन्न प्रकार की मुक्ति तो मिलती है, परन्तु स्वंय शिव-रूप बन कर निर्वाण मुक्ति तो सकल आम्नाय-वेत्ता को हीं प्राप्त होती है। ( नोट: आजकल लोग एक ही महाविद्या के तीन-चार मन्त्र क्या जान और कर लिए अपने को दूसरा शिव समझने लगते हैं। )
अब किस आम्नाय से किस प्रकार की मुक्ति को साधक प्राप्त करता है, इस प्रश्न का उत्तर मेरु-तन्त्र का वचन चारुतया प्रदर्शित करता है-
दक्षिणोपासक: काल: ऊर्ध्व: सायुज्यमाप्नुयात्।
देवतायास्तथा पूर्व: सारूप्यं लभते परम्।। *सामीप्यं चोत्तरो लोके पश्चिममवैदिकं फलम्।
लाभस्त्यागश्चोपकारो ह्यधोमार्गोऽप्युदर्क-युक्।।
कुलार्णव भी मेरु-तन्त्र की पुष्टि करता है और कहता है-
एकाम्नायं च यो वेत्ति स मुक्तो नात्र संशय:,
किं पुनश्चतुराम्नाय-वेत्ता साक्षात् शिवो भवेत्। चतुराम्नायविज्ञानादूर्ध्वाम्नाय: पर: प्रिये!
तस्मात् तदेव जानीयात् यदीच्छेत् सिद्धिमात्मन:।।
अर्थात् एक आम्नाय को सम्यक प्रकारेण जानने से भी मुक्ति को प्राप्त हो जाता है और यदि वह चतुराम्नाय को जानने वाला हो तो कहना ही क्या! वह तो साक्षात् शिव हो जाता है। इन चतुराम्नाय से परे ऊर्ध्वाम्नाय है। अत: साधक को ऊर्ध्वाम्नाय को जानने का हीं प्रयत्न करना चाहिए। जिसने षडाम्नाय को जान लिया उसको नमन तो स्वंय शिव भी करते हैं क्योंकि षडाम्नायी तो साक्षात् भगवती ही है।
( नोट: ऊपर मैने लिखा है कि एक आम्नाय को जानने वाले को भी मुक्ति मिलती है पर वह जानकारी सम्यक होना चाहिए । उदाहरण के लिए कोई पहली महाविद्या काली का उपासक हो तो क्या उसे काली की एकाक्षरी, त्रयक्षरी, नवाक्षरी और द्वाविंशाक्षरी विद्याराज्ञी मन्त्र जानने मात्र से मुक्ति लाभ होगा? जी नहीं। इसके लिए उसे उपरोक्त मन्त्रों के अलावा भरतोपासिता गुह्यकाली और महाकालोपासिता कामकला काली की भी उपासना करनी पड़ेगी )।
षडाम्नाय के यथार्थ ज्ञान के बिना षट्-चक्र की शुद्धि नहीं होती और उसकी शुद्धि के बिना शिव-स्वरूप नहीं हो सकता। इस बात पर शक्ति-संगम-तन्त्र भी स्वतन्त्रता से प्रकाश डालता है-
काली तारा सुन्दरी क्रमदीक्षाऽभिगामिनी।
क्रम-पूर्णो महेशानि! क्रमाच्छम्भुर्भविष्यति।।
वृहद् बड़वानल तन्त्र भी इसकी ओर पुष्टि करता है-
सुन्दरी तारिणी काली क्रमदीक्षाऽभिगामिनी।
क्रम-पूर्णो महेशानि! क्रमाच्छम्भुर्भविष्यति।।
सुन्दरी हादि-विद्या च सादि-विद्या च तारिणी।
कादि-विद्या गुह्य-काली मत-त्रय विभिन्नगा।।
उपरोक्त बातों का तात्पर्य यह है कि क्रमिक पुरुष जितना क्रम करता रहता है, उतनी ही चक्र-शुद्धि होती जाती है। क्रम-पूर्ण होने के अनन्तर उसको शिवत्व-शक्ति प्राप्त होती है।