कुलधर्म का बोधात्मक ज्ञान
पूर्वजन्मकृताभ्यासात् कुलज्ञानं प्रकाशते।
स्वप्नोत्थितप्रत्ययवद् उपदेशादिकं विना।।
कुलज्ञान का बोधात्मक प्रकाश पूर्वजन्मों में किये हुए अभ्यास से जन्य प्रारब्ध से प्राप्त होता है। पूर्वप्रारब्ध के अनुसार कुलज्ञान का बोध स्वयमेव प्रकाश की तरह उपलब्ध हो जाता है।
आज इस अज्ञानी के मन भी यह विचार जोर मार रहा है कि कुलधर्म की श्रेष्ठता पर अपने विचार प्रकट करुँ।
पार्वती ने जब शिव से कुलधर्म का माहात्म्य जानने की जिज्ञासा प्रकट की तो शिव ने सबसे पहले यह कहा कि हे पार्वती मैं तुन्हारे इस रहस्य प्रश्न को सुनकर अतीव प्रसन्न हुँ। यह इतना पावन विषय है, जिसके श्रवण-मात्र से हीं कोई पुरुष योगिनी शक्तियों का प्रिय हो जाता है।
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तस्य श्रवणमात्रेण योगिनीनां प्रियो भवेत्।।
कुल धर्म की गोपनीयता पर शिव कहते है:
ब्रह्मविष्णुगुहादीनां न मया कथितं पुरा।
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कि आज तक मैने इसे न तो ब्रह्मा को, न ही विष्णु को और न ही गुह्य सदृश अपने पुत्र को हीं इसे बताया है।
कुलधर्म के विषय में आगे कहते हैं:
गुह्याद् गुह्यतरं देवि सारात् सारं परात्परम्।
साक्षात् शिवपदं देवि कर्णाकर्णिगतं कुलम्।।
जितने भी गुह्यशास्त्र हैं, उनमें सबसे गोपनीय यही मत है। यह रहस्य-शास्त्रों का भी सार है। यह परात्पर शास्त्र है। इसी के ज्ञान से शिव का साक्षात्कार किया जा सकता है। कुलधर्म की परम्परा शास्त्रीय प्रचारात्मक नहीं है, अपितु कर्णाकर्णिगत मत है। गुरु के द्वारा दीक्ष्य को दिये गये उपदेश के माध्यम से हीं यह यहाँ तक आ सका है।
आगे कहते हैं:
एकत: सकला धर्मा यज्ञ-तीर्थ- व्रतादय:।
एकत: कुलधर्मश्च तत्र कौलोऽधिक: प्रिये।।
एक ओर तराजू के पलड़े पर सारे धर्म, सारे यज्ञ, तीर्थ और व्रतों को रख दिया जाय, दूसरी ओर दूसरे पलड़े पर कुलधर्म हीं केवल रखा जाय, तो यह निश्चय है कि सन्तुलन का दण्ड कुलधर्म की ओर हीं झुका रह जायेगा।
यथा हस्ति-पदे लीनं सर्वप्राणि-पदं भवेत्।
दर्शनानि च सर्वाणि कुल एव तथा प्रिये।।
‘सर्वे पदा हस्तिपदे निमग्ना:’ इस कहावत के अनुसार जिस तरह हाथी के पैरों में सारे प्राणियों के पैर समा जाते हैं उसी तरह सारे दर्शन भी कुलदर्शन में ही समाहित हो जाते हैं।
दर्शनेषु च सर्वेषु चिराभ्यासेन मानवा:।
मोक्षं लभन्ते कौले तु सद्य एव न संशय:।।
जितने भी दर्शन हैं, उनके लिए अनन्त आयास और अभ्यास की आवश्यक्ता होती है। इतने कष्टसाध्य स्वाध्याय के बाद हीं उससे मोक्ष की प्राप्ती कर सकते हैं, किन्तु कुलदर्शन के स्वाध्याय से तत्काल मुक्ति उपलब्ध होती है।
योगी चेन्नैव भोगी स्याद् भोगी चेन्नैव योगवित्।
भोगयोगात्मकं कौलं तस्मात् सर्वाधिकं प्रिये।।
योग की साधना मेॆ प्रवृत्त मुमुक्षु साधक भोगी नहीं हो सकता। इसी तरह भोग में लिप्त व्यक्ति योगी नहीं हो सकता। प्रिये! इस कुलधर्म की सबसे बड़ी विशेषता है कि यह कौलधर्म भोगयोगात्मक धर्मदर्शन है। यह विशेषता अन्य किसी धर्म में नहीं।
भोगो योगायते साक्षात् पातकं सुकृतायते।
मोक्षायते च संसार: कुल-धर्मे कुलेश्वरि।।
इस धर्म में परिनिष्ठित व्यक्ति के लिए भोग हीं योग बन जाता है। जिसे हम पातक कह कर उपेक्षित कर देते हैं, वही अमृतवत् विश्व को आप्यायित की तरह तृप्त करने लग जाता है। संसार जिसे सभी मिथ्या और नश्वर कहते हैं, वह मोक्षवत् विश्वतारक बन जाता है। हे कुलेश्वरि पार्वती! यह कुलधर्म का सर्वातिशायी वैशिष्ट्य है।
विहाय सर्व-धर्मांश्च नाना गुरु मतानि च।
कुलमेव विजानीयाद् यदीच्छेत् सिद्धिम् आत्मन:।।
यदि कोई बुद्धिमान पुरुष तत्काल सिद्धि का अभिलाषी हो, तो उसे समस्त प्रचलित धर्मों और अनेक गुरुओं द्वारा प्रवर्त्तित मत-मतान्तरों का परित्याग कर कुलधर्म को जानने के लिए प्रयत्नशील हो जाना चाहिए।
अन्त में मैं शिव के इस वचन को उद्धृत कर अपने इस लेख को विराम देता हुँ
अस्ति चेत्त्वत्समा नारी मत्सम: पुरुषोऽस्ति चेत्।
कुलेन सम धर्मस्तु तथापि न कदाचन।।
हे पार्वती! यह सम्भव है कि तुम्हारे समान कोई नारी विश्ववन्दनीय हो जाय, यह भी सम्भव है कि, कोई पुरुष मेरी अर्थात् शिव की समता प्राप्त कर ले; किन्तु यह कदापि सम्भव नहीं कि कोई धर्म कुलधर्म की समता प्राप्त कर सके।