संकेत-त्रय में सबसे महत्वपूर्ण मन्त्र संकेत है। देवता का बोध मन्त्र द्वारा होता है। अतएव देवता वाच्य है एवं मन्त्र उसका वाचक है। वाच्य वाचक शब्दों को ही अभिधान, अभिधेय, नाम-नामी पर्याय के द्वारा व्यवहृत किया जाता है। वाच्य और वाचक में अभेद सम्बन्ध शास्त्र में प्रतिपादित है। ‘वाक्यप्रदीप’ में भतृहरि ने कहा है-
“न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके य: शब्दानुगमादृते।
अनुविद्धमिव ज्ञानं सर्वं शब्देन भासते।।”
मनन से जो साधक को त्राण देने वाला है उसको मन्त्र नाम से कहा गया है। यह मन्त्र चित् मरीचियों का स्वरूप है। वाचक होने के कारण वैखरी वाणी के विलास की स्वरूप मन्त्र मनन मात्र से साधक का त्राण करती है एवं देवता से तादात्म्य का सम्पादन करती है।
मन्त्रार्थ निरूपण
शास्त्र का स्पष्ट मत है कि जो विद्या को जानता है वही मुक्त है। कहा है-“विदिता येन स मुक्तो भवति।” तथा- “ब्रह्म विद्ब्रह्मैवभवति। स एवं पश्यन्नैवं मन्वानं एवं जानन्नात्मरतिरात्म क्रीड आत्ममिथुन आत्मानन्द: स एवं भवति।” अर्थात् ज्ञान पूर्वक अनुष्ठान से ही ब्रह्म से साक्षात्कार होता है। श्री भास्कर राय ने वरिवस्या रहस्य में कहा है कि जिस प्रकार वह्णि विहीन भस्म में प्रक्षिप्त हवि प्रज्जवलित नहीं होता है उसी प्रकार बिना अर्थ-ज्ञान के शब्द का उच्चारण फलित नहीं होता है। अर्थ के ज्ञान के बिना जो मन्त्र का पाठ मात्र करता है वह चन्दन भारवाही खर के समान है।
“अर्थमजानानां नानाविध शब्दमात्र पाठवताम्।
उपयेश्च चक्रीवान् मलयजभारवाहस्य वोढैव।।”
अतएव साधना का परमोपयोगी अङ्ग होने से हम यहाँ पञ्चदशी महामन्त्र के अनेक अर्थों में से कतिपय अर्थों के सार का निर्वचन करते हैं।
मन्त्रराज का स्वरूप
महामन्त्र में पन्द्रह अक्षर हैं अत: इस को पञ्चदशी मन्त्र के नाम से सम्बोधित किया जाता है। यह पन्द्रह अक्षर तीन भागों में विभाजित है। पञ्च-अक्षरीय प्रथम भाग का नाम वाग्भव कूट है। दूसरा भाग का नाम कामराज कूट है और इसमें छ: अक्षर हैं। शेष चार अक्षर वाले तृतीय भाग का नाम शक्ति कूट है।
मन्त्रराज की उत्पत्ति
“योगिनीभिस्तथा वीरै: वीरेन्द्रै: सर्वदा प्रिये।
शिवशक्ति समायोगाञ्जनितो मन्त्रराजक:।।”
अर्थात् योगिनी, वीर, वीरेन्द्र एवं शिव-शक्ति के समायोग से मन्त्रराज की उत्पत्ति होती है। विमर्श की अंशभूत इच्छा-ज्ञान-क्रियात्मक शक्तियों का रूप भारती, पृथ्वी, रूद्राणी है जिनको योगिनी कहा गया है क्योंकि इसका शिव से नित्य सम्बन्ध है। “शिव सम्बन्धो नित्यं विद्यते आसामिति योगिन्यो।” इनका वाचक अक्षर “ल”-कार है। अतएव मन्त्र के तीनों कूटों में ‘ल’-कार का तीन बार प्रयोग हुआ है। जिनका योगिनियों से नित्य सम्बन्ध है, वह प्रकाश के अंश भूत वामा-ज्येष्ठा-रौद्री रूप ब्रह्म-विष्णु रुद्र विश्व की सृष्टि, स्थिति एवं संहारकर्ता होने से वीरेन्द्र कहे गये हैं। इनका वाचक अक्षर ‘क’-कार हैं अतएव मन्त्र में तीन बार ‘क’-कार का प्रयोग हुआ है। “त्रितय भक्ता वीरेश:” अर्थात् शिव सूत्रों में जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं में जो अप्रच्युत रह कर तत्त्व का अनुसन्धान करता है उस त्रितय भोक्ता को वीरेश कहा है। मन्त्र में प्रयुक्त ‘ह’-कार, ‘स’-कार एवं ‘ई’-कार वीर परक हैं। इस प्रकार तीन ककार, तीन लकार एवं ह स ई अक्षर की संख्या नौ होती है तथा ‘ए’ दशवाँ अक्षर है जो शिव-शक्ति के समायोग का वाचक है इस प्रकार ‘ए’-कार के साथ अक्षरों की संख्या दश हो जाती है। यह दश अक्षर मन्त्र की शक्तियों के वाचक हैं। ‘ह्रीं’ पद देवी का वीचक है। इस प्रकार मन्त्रराज की वीर अर्थात् साधकों द्वारा भारती आदि योगिनी, ब्रह्मादि वीरेन्द्र एवं शिव-शक्ति की समष्टि रूप में भावना की जाती है। अतएव इसको मन्त्र का भावार्थ कहा गया है। शिव-शक्ति के वाचक वर्ण ‘अ’-कार एवं ‘ह’-कार है और इन दोनों का शून्याकार परस्पर श्लिष्ट ‘अहं’ स्वरूप प्रतिपादित किया गया है। उपनिषदों में अहं को ही ब्रह्म निरूपित किया गया है। यह अहं पद तुर्य कामकला आदि शब्दों से भी निर्दिष्ट है। अहं से ही शब्दी एवं अर्थी सृष्टि का विकास होता है अत: विश्व अहंतामय है। अकार एवं हकार मन्त्र में समाविष्ट हैं अतएव मन्त्र, मातृका एवं विश्व का तादात्म्य सिद्ध होता है। इस तादात्म्य की भावना को भावार्थ कहा है।
निगर्भार्थ
महामन्त्र के निगर्भार्थ से तात्पर्य है शिव, गुरु एवं शिष्य का तादात्म्य। शास्त्र प्रतिपादित करता है कि वाङ्ग, मन एवं इन्द्रियों से अतीत, नीरूप, निर्विकल्प, निर्द्वन्द्व परम शिव एवं समस्त विद्याओं के ज्ञाता गुरु में कोई भेद नहीं है। आत्मा शिष्य का रूप है। गुरु की कृपा कटाक्ष से अहंभाव एवं संसार कलंक से मुक्त होकर शिष्य शिष्यत्व प्राप्त करता है। अतएव शिव, गुरु एवं शिष्य में कोई भेद नहीं रह जाता है। कहा है-
“गृणते तत्त्वमात्मीयमात्मीकृत जगत्त्रयम्।
उपायोपेय रूपाय शिवाय गुरवे नम:।।”
रहस्यार्थ
सूर्य की द्वादश कलाओं से युक्त, पञ्चाशत वर्णों से अभिन्न, एवं विसतन्तु के समान सूक्ष्म कुण्डलिनी मूलाधार में विद्यमान त्रिकोण में अधोमुख, त्रिवलयाकार प्रसुप्त अवस्था में स्थित रहती है। योगी जन योग क्रिया के द्वारा अधोमुख कुण्डलिनी को उपर की ओर उत्थापित करते हैं जिससे वह उर्ध्वमुखी होकर ऋजु रेखा के रूप में परिणत हो जाती है और चक्रों का भेदन कर व्योम में स्थित चिदात्मक शशिमण्डलस्थ अकुल कुण्डलिनी से संगम करती है। इस संगम के कारण चन्द्र मण्डल से अमृत का स्राव होने लगता है और सहस्रार को इस अमृत से आप्लावित कर वह स्वंय को तृप्त करती है। पञ्चदशी महामन्त्र का यह रहस्यार्थ साधक गुरु से जान कर स्वंय अनुभव कर सकता है।
महातत्त्वार्थ
महामन्त्र के रहस्यार्थ की चर्चा के क्रम में कुण्डलिनी की मूलाधार से परम व्योम पर्यन्त क्रमिक यात्रा का जो वर्णन किया गया है उसका अन्तिम लक्ष्य महातत्त्व है। यह लक्ष्य निष्कल, परम सूक्ष्म, भाव रहित अवस्था है जो परम व्योम से भी अतीत है। यहाँ इन्द्रियों एवं मन की गति नहीं है। प्रकाशानन्द रूप यह लक्ष्य विश्वोत्तीर्ण भी है एवं विश्वमय भी है। जब साधक की कुण्डलिनी रूप प्राण शक्ति क्रमश: मूलाधार, अनाहत आदि चक्रों का भेदन करती हुई बिन्दु, अर्धचन्द्र, रोधिनी, नाद, नादान्त, शक्ति व्यापिका एवं समना स्थानों का अनुसन्धान कर उन्मनी में प्रवेश करती है तब मन का अन्त हो जाता है। बिन्दु से उन्मनी पर्यन्त नव स्थानों की समष्टि को नाद नाम से जाना जाता है। कहा है- “विन्द्वादीनां नवानां तु समष्टिर्नादउच्यते।” जिस प्रकार घण्टा के आहत होने पर उससे प्रादुर्भूत नाद की गुञ्जार का शनै: शनै: पूर्ण विराम हो जाता है उसी प्रकार योगी के अन्त: में सञ्चरित नाद के दृढतर अभ्यास से बिन्दु से उन्मनी पर्यन्त पहुँचते पहुँचते शब्द का पूर्ण रूप से शमन हो जाता है। कहा है-
“पिण्डो वाचक विस्तरस्य महत: संस्कार शेषस्थिति- र्नादोऽसौ तव देवि मूर्ध्नि समनासीमानमुल्लङ्घयन्।
घण्टाक्वाण इव क्रमेण विरमन्नन्त्यामणीयस्तम- माजिघ्रन् परचिद्दशामनुपमां मूर्ति पुराणीमुमे।।”
उन्मनी पद परम व्योम से ऊपर है। यहाँ विश्वानुभूति शेष नहीं रह जाती है अर्थात् इन्द्रियों तथा मन द्वारा अनुभूत समस्त ज्ञान का अन्त हो जाता है। इस अवस्था में संकल्पों एवं विकल्पों का उद्रेक निरस्त हो जाता है अत: यह अवस्था तन्त्र में गुप्त कही है। इस अवस्था में गुरु की कृपा से प्रबुद्ध आत्मा परम शिव में अनुप्रवेश करता है। यहाँ साधक को उपनिषदों में उपदिष्ट “तत्त्वमसि” महावाक्य की अनुभूति होती है। इस निर्विल्पात्मक बोध को महातत्त्वार्थ नाम से व्यवहृत किया गया है।
कुछ साधकों का मत है कि इस निर्विल्प अवस्था का पता अनुमान प्रमाण के द्वारा होता है, किन्तु वस्तुत: यहाँ प्रमाण की कोई आवश्यक्ता नहीं है, कारण यह है कि शिवात्मक यह पद स्वंय प्रकाश स्वरूप है। इससे हीं समस्त विश्व का प्रकाश होता है। श्रुति कहती है, "तस्य भासा सर्वमिदं विभाति।" गीता का भी वचन है- "नतद्भासयते सूर्यो न शशङ्को न पावक:।" अर्थात् सुर्य, चन्द्र एवं अग्नि की वहाँ प्रकाश करने का सामार्थ्य नहीं है अपितु उसके प्रकाश से ही सूर्य अदि प्रकाशित होते हैं।
विश्वोतीर्ण अवस्था में साधक स्वंय को शिव रूप में अनुभव करता है तथा समाधि से व्युत्त्थान होने पर साधक को परम प्रकाश की प्रत्यक्ष अनुभूति होती है। जब शिव प्राणियों के चित्त के रूप में परिस्फुरित होता है तब आत्मा का मन के साथ, मन का इन्द्रियों के साथ एवं इन्द्रियों का विषयों के साथ सम्पर्क होता है। परम शिव हीं तत् तत् अर्थों में प्रकाशित होता है। यहाँ “शिवोऽहमस्मि” महावाक्य की अनुभूति होती है। कहा है-
“यत्र यत्र मिलिता मरीचय स्तत्र तत्र विभुरेव जृम्भते।
तत्सतां हि नियमावलम्बिनाम्, ध्यान पूजन कथा विडम्बना।।”
अर्थात् साधक को विश्वानुभुति में भी सर्वत्र शिवत्व सी अनुभूति होती रहती है।