निगम एवं आगम विचारश्रोतों की धारायें
निगम एवं आगम विचारश्रोतों की धारायें मुख्य रूप से तीन हैं-
१.कर्म काण्ड २.ज्ञान काण्ड ३.उपासना काण्ड | यह तीनों विचार प्रकरण परस्पर सम्बद्ध है | तीनों धाराओं के त्रिवेणी रूप संगम में स्नान करने से ही जीव का उद्धार सम्भव है | यद्यपि विचारकों ने इनका पृथक-पृथक मार्गों के रूप में भी समर्थन किया है | ज्ञान के बिना उपासना का मार्ग अन्धा है | ज्ञान के बिना कर्म बन्धन का हेतु हो जाता है तथा उपासना एवं क्रिया के बिना ज्ञान पंगु है |
कर्म काण्ड का मूल इच्छा है | मनुष्य इच्छाओं की गठरी है तथा इच्छाओं के जाल में फँसा हुआ अनवरत चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करता रहता है तथा आजीवन परवशता के कारण इच्छाओं की पूर्ति के हेतु प्रयत्नशील रहता है | संसार की इच्छाओं का विस्तार तुच्छ से तुच्छ भोग से प्रारम्भ होकर स्वर्ग भोग पर्यन्त है | वैदिक कर्म काण्ड में इच्छाओं की पूर्ति के हेतु यज्ञों का विधान किया गया है | कहा है- “स्वर्गकामो यजेत”, “पुत्रकामो यजेत”|| आदि |
यह समस्त यज्ञीय विधान इस प्रकार जटिल, व्ययसाध्य एवं कष्टसाध्य हो ज्ञा गया है कि जनसाधारण की सामर्थ्य के बाहर है | इसके अतिरिक्त कर्म फल की प्राप्ति भी निश्चित नहीं है | अन्ततोगत्वा ईश्वर को ही बली मान लिया जाता है | यदि दैववश स्वर्ग की प्राप्ति हो भी जाय तब भी पुण्य के क्षीण हो जाने पर पुनः मर्त्यलोक में जन्म-मरण की श्रृंखला में बन्ध कर अनेक प्रकार के कष्ट भोगने पड़ते हैं | “क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति” | सन्त तुलसीदास जी ने इसी बात को इस प्रकार दोहा में कहा है-
जरा मरण दुख रहित तनु, समर जितै नहिं कोय |
एक छत्र रिपुहीन महि, राज्य कल्पशत होय ||
प्रतिक्षण विद्यमान अनन्त इच्छाओं की तृप्ति के हेतु कल्पित यज्ञीय कर्मकाण्ड के अनुष्ठान से जीव की निवृत्ति असम्भव है | श्रीमद्भागवत में कहा है-
“यथा पङ्केन पङ्काम्भः सुरया वा सुराकृतम् | भूतहत्यां तथैवैकां न यज्ञैर्मष्टुमर्हति ||”
जिस प्रकार थोड़ी सी भी सुरा के दुर्गंध को सुरा के सरोवर में स्नान करने पर भी दूर नहीं किया जा सकता है, उसी प्रकार असंख्य यज्ञों के अनुष्ठान से भी एक जीव के पापों का परिमार्जन असम्भव है |