प्रज्ञावर्धन स्तोत्र जैसा नाम से विदित है वैसा ही इसका प्रभाव है । यह साधारण प्रयोग प्रज्ञा की वृद्धि करता है ।
पहले संकल्प करे:
देशकालौ संकीर्त्य अमुक गोत्रस्य अमुकोऽहं मम प्रज्ञा सिद्धयर्थे प्रज्ञावर्धन स्तोत्रस्य अद्यारभ्य सप्तविंश दिवस पर्यन्तं प्रति दिवसे दश संख्यक जप रूप पुरश्चरणं करिष्ये।
विनियोगः
ॐ अथास्य प्रज्ञावर्धन स्तोत्रस्य भगवान् शिव ऋषि: अनुष्टुप् छन्दः स्कन्द कुमारो देवता प्रज्ञा सिद्धयर्थे जपे विनियोगः।
ऋष्यादिन्यास:
भगवान् शिव ऋषये नम: शिरसी।
अनुष्टुप् छन्दसे नमः मुखे।
स्कन्द कुमारो देवतायै नमः हृदि।
प्रज्ञा सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नम: सर्वाङ्गे।
योगेश्वरो महासेनः कार्त्तिकेयोऽग्निनन्दन:।
स्कन्दः कुमारः सेनानी स्वामी शंकरसम्भव:।।
गाङ्गेयस्ताम्रचूडश्च ब्रह्मचारी शिखिध्वज:।
तारकारिरुमापुत्र: क्रौंचारिश्च षडानन:।।
शब्दब्रह्मसमूहश्च सिद्ध: सारस्वतो गुह:।
सनत्कुमारो भगवान् भोगमोक्षप्रद: प्रभुः।।
शरजन्मा गणाधीश: पूर्वजो मुक्ति मार्गकृत्।
सर्वागमप्रणेता च वांछितार्थप्रदर्शक:।।
अष्टाविंशति नामानि मदीयानीति य: पठेत्।
प्रत्यूषे श्रद्धया युक्तो मूको वाचस्पतिर्भवेत्।।
महामन्त्रमयानीति मम नामानि कीर्तयेत्।
महाप्रज्ञामवाप्नोति नात्र कार्या विचारणा।।
पुष्यनक्षत्रमारभ्य पुन: पुष्ये समाप्य च।
अश्वत्थमूलं प्रतिदिनं दशवारं तु सम्पठेत्।।
विधिः – अश्वत्थ वृक्ष के मूल में बैठ कर इसका प्रतिदिन १० बार पाठ करना है। यह पाठ प्रारम्भ पुष्य नक्षत्र में करना है और अगले पुष्य नक्षत्र तक अर्थात् २७ दिन करना है। पाठ श्रद्धा से करे। यदि सम्भव हो तो इस अवधि में प्रतिदिन मोर को चावल के दाने खिलायें।