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संकेत-त्रयान्तर्गत पूजा संकेत

KAULBHASKAR GURU JI

2022-09-23

पूजा संकेत

पूरा तन्त्र, विशेष कर श्री-चक्र पूजा तो पूरा का पूरा ही संकेतात्मक है। शैव एवं शाक्त सम्प्रदायों का विकास श्रीचक्र, मन्त्र एवं पूजा विधान पर ही आश्रित है। वेदान्तिक पूजा में भी उपर्युक्त संकेत-त्रय(चक्र, मन्त्र और पूजा) का आश्रय लिया गया है। आज हम चर्चा करेगें पूजा-संकेत पर। तन्त्र में पूजा के सर्वश्रेष्ठ रूप को परा-पूजा के नाम से संकेत किया जाता है। इसकी सर्वश्रेष्ठता का कारण यह है कि इस प्रकार की पूजा से परम शिव के अद्वैत ज्ञान का स्रोत प्रवाहित होने लग जाता है। कहा है-

"न पूजा बाह्य पुष्पादि द्रव्यैर्या प्रथिताऽनिशम्

स्वे महिम्नद्वये धाम्नि सा पूजा या परास्थिता।।"

अर्थात् पुष्प चन्दन आदि उपचारों से जो पूजा की जाती है वह वास्तविक पूजा नहीं है। अद्वैत भाव से स्वात्म स्वरूप में अच्युत स्थिति ही यथार्थ पूजा है। परा पूजा में जीव अपने परिच्छिन्न स्वरूप से ऊपर उठ कर स्वंय अपरिच्छन्न चित्, शिव स्वरूप हो जाता है। योगिनी हृदय की सेतुबन्ध टीका में श्री भास्कर राय ने द्वैतानुभूति के सामान्य अभाव को परा पूजा कहा है। ” द्वैतभान सामान्यभावे परा। ” परा पूजा की अवस्था में साधक को द्वैत की अनुभूति शेष नहीं रह जाती है तथा जहाँ जहाँ मन जाता है वहाँ वहाँ बाह्य अथवा अन्त: जगत् में, सर्वत्र इन्द्रियों के व्यापार में चैतन्य ही अभिव्यञ्जित होता है। कहा है-

"यत्र यत्र मनो याति बाह्ये वाभ्यन्तरे प्रिये

तत्रतत्राक्ष मार्गेण चैतन्यं व्यज्जते प्रभो:।।"

इस श्रेष्ठ परापूजा में “परम शिव में दृढतर अद्वैत-भावनात्मक समावेश हीं प्रसाद है जिसके सेवन से प्राप्त आनन्द से साधक मत्त हो जाता है। कहा है-

“प्रकर्षेणासादनं प्रसाद: भेदापसरणे- नाभेदोपपत्त्या स्वात्मैक्यता प्रतिपादनम्।।

परापूजा में इन्द्रियों के सञ्चार को संयमित कर आन्तर नाद के उच्चार को जप कहा गया है। विकल्पात्मक नाना विध अक्षरों के उच्चारण के रूप में अनुष्ठित बाह्य जप को यहाँ जप नहीं माना गया है। कहा है-

“संयम्येन्द्रिय सञ्चारं प्रोच्चरेन्नादमान्तरम्एष एव जप: प्रोक्तो न तु बाह्य जपो जप:।।

जप के अभ्यास से साधक तन्मय हो जाता है। “जप: तन्मयता रूपं भावनं सम्यगीरितम्।”

जप की इसी कोटि के समान ध्यान भी होना चाहिए। विज्ञान भैरव में कहा है-

“ध्यानं या निष्कला चिन्ता निराकारा निराश्रया

न तु ध्यानं शरीरस्य मुख हस्तादि कल्पना।।

अर्थात् निष्कल, निराकार, निराश्रय चिन्तन का नाम ध्यान है। किसी कल्पित देवता के मुख, हस्त आदि की कल्पना को ध्यान नहीं कहा गया है। द्वितीय श्रेणी की पूजा का नाम परापरा पूजा है। इस पूजा में साधक द्वैत के विलय का अभ्यास करता है। इस अवस्था में अद्वैत अनुभूति का विशुद्ध रूप में आविर्भाव नहीं हो पाता है अपितु साधक में यह भावना घर करने लग जाती है कि समस्त बाह्य जगत् आभ्यन्तर चिन्मय स्वरूप में विलीन होता जा रहा है। कहा है-

"बाह्यान्तरे धाम्न्द्वये चिल्लय भावनामयी परापरात्मकत्वात्।"

उत्तम पूजा में भावना की आवश्यक्ता नहीं होती है, किन्तु जब तक चरम स्थिति का उदय न हो तब तक ही पूजा में भावना का स्थान है। तीसरी प्रकार की पूजा का नाम अपरा पूजा है। यह पूजा निम्न कोटि की है, कारण यह कि इस प्रकार की पूजा में साधक चक्र, आवरण आदि की बाह्य रचना कर, गन्ध पुष्पादि विविध द्रव्यों से पूजा का विधान रचता है अत: द्वैत मात्र की अनुभूति होती है। श्री भास्करराय ने सेतुबन्ध टीका में अपरा पूजा की परिभाषा करते हुए लिखा है कि इस पूजा में अद्वैत अनुभूति का सामान्य अभाव रहता है-

“अद्वैतमान सामान्याभावे तु अपरा।।”,

अपरा एवं परापरा पूजा परा स्थिति की प्राप्ति में सहायक है अत: इनका अभ्यास भी प्रारम्भिक अवस्था में आवश्यक है।