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तन्त्र साधना में शुद्धि निरूपण

KAULBHASKAR GURU JI

2022-09-23

वैदिक साधना में बाह्य शरीर आदि की शुद्धि पर विशेष आग्रह है अतः शुद्धि निरूपण विषय पर लिख रहा हूँ | कालान्तर में बाह्य शुद्धि ही साधना का मुख्य अङ्ग बन गई तथा अन्ततोगत्त्वा बाह्य शुद्धि ने ही साधना का रूप धारण कर लिया एवं अस्पर्शता को वर्ण-व्यवस्था का धर्म स्वीकार कर लिया गया एवं जाति भेद ने समाज में उच्च एवं नीच की भावना को प्रोत्साहित किया | साधक स्नान, तिलक, चन्दन, भस्म लेपन आदि से स्वरूप बनाने में ही अपने को कृतकृत्य मानने लगा | बौद्ध विचारकों ने धर्म के इस बाह्य आडम्बर के खोखलेपन को पहचान लिया तथा स्नान आदि बाह्य शुद्धि तथा जातिवाद के अवलेप को जड़ता की संज्ञा प्रदान की | जैसा कि कहा है-

“स्नाने धर्मेच्छा जातिवादावलेपः | प्रायश्चितं पापहा नाय चेति, ध्वस्तप्रज्ञानां पञ्चलिङ्गानि जाड्ये”||

वेदान्तिक, तान्त्रिक एवं आगामिक बौद्धविरोधी क्रान्तिकारी विचार-प्रवाह ने यद्यपि बौद्ध-नास्तिकता का उन्मूलन करने मे सफलता प्राप्त की तथापि वह आत्मा एवं ब्रह्म तथा कर्मकाण्ड पर पुनर्विचार करने पर बाध्य हो गए तथा धर्म को नवीन स्वरूप दिया गया जिस में बाह्य शुद्धि का स्थान आन्तर्शुद्धि ने ग्रहण किया | जल से शारीरिक शुद्धि, सत्य से मानसिक शुद्धि, विद्या-तप से भूतात्मा को शुद्धि तथा ज्ञान से बुद्धि की शुद्धता का सिद्धांत अपनाया गया |

“अद्भिः गात्राणि शुद्धयन्ति, मनः सत्येन शुद्धयति|

विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुद्धयति”||

श्रवण-मनन-निदिध्यासन को अन्तः शुद्धि का साधन वेदान्त ने स्वीकार किया |

तांत्रिकों ने भी स्पष्टरूप से कहा कि अल्प मात्र बोध युक्त धर्मशास्त्रियों ने मृतिका, जल आदि से जिस शुद्धि का प्रतिपादन किया है वह शुद्धि शंभुदर्शन में ग्राह्य नहीं है और उसको भी अशौच की श्रेणी में हीं माना है | जल आदि से सम्पादित शुद्धि तत्त्वज्ञान के प्रति अकिंचित्कर है अतः इसका अङ्ग नहीं हो सकती | जैसा कि कहा है-

“मृज्जलादिविशुद्धोऽपि न पवित्रो बहिर्मुखः|

बहिर्निर्मलमध्यस्थ पुरीष कलशादिवत्”||

मृत्तिका, जल आदि से बाह्य पवित्रता होने पर भी पवित्र नहीं है | जिस प्रकार स्वर्ण-कलश बाहर से निर्मल हो किन्तु भीतर मल पुरीष भरा हो तब उसको पवित्र नहीं कहा जा सकता, उसी प्रकार बाहर से शरीर पवित्र होने पर भी अन्तः में मल से युक्त होने के कारण पवित्र नहीं कहा जा सकता | नाना प्रकार के विकल्प काम-क्रोध आदि ही अशुद्धि हैं अतः निर्विकल्प ज्ञान के द्वारा अन्तः शुद्धि होने पर ही शुद्ध कहा जा सकता है | अतः तन्त्र से समस्त स्नानों का फलभूत मुख्य मानस स्नान ही स्वीकार किया गया है |

“इज्याचार दमाहिंसा दान स्वाध्याय कर्मणाम्|

अयं स परमो धर्मो यद्योगेनात्मदर्शनम्”||

यदि मृतिका आदि से शुद्धि न भी की जावै तब भी परमात्मा की कोई हानी नहीं है क्योंकि वह आकाश तुल्य निराकार है और यदि बाह्य शुद्धि की भी जावे तब भी आत्मा में कोई वृद्धि नहीं हो जाती | देह जल आदि से शुद्ध होने पर भी अपवित्र ही है | अतः मृतिका आदि से शौच के बिना भी निर्विकल्प ज्ञान से मानसिक मल की शुद्धि निश्चित है (विज्ञान भैरव पर शिवोपाध्याय कृत विवृति) | विज्ञान भैरव में कहा है-

“किंचिज्ज्ञैर्या स्मृता शुद्धिः साऽशुद्धिः शम्भुदर्शने|

नशुचिर्ह्यशुचिस्तस्मान्निर्विकल्पः सुखी भवेत्||१२३||”

कुलार्णव में भी कहा है कि, कुल धर्म में मन्त्रोंदक के बिना सन्ध्यापूजा एवं होम के बिना जप, उपचार के बिना याग का समाचरण योगी नित्य कर सकता है | योगी वह है जो निःसङ्ग अथवा विसङ्ग वासना से उत्तीर्ण एवं निज स्वरूप में निर्मग्न है |कहा है-

“मन्त्रोंदकैः विनय सन्ध्या, पूजा होमः विनय जपः|

उपचारैः विनायागं योगी नित्यं समाचरेत्||

निःसङ्गश्च विसङ्गश्च निस्तीर्णोपाधि वासनः|

निज स्वरूप निर्मग्नः स योगी परतत्त्ववित्||

“इज्याचार दमाहिंसा दान स्वाध्याय कर्मणाम्|

अयं स परमो धर्मो यद्योगेनात्मदर्शनम्”||

शाक्त मार्ग के अनुसार देह ही देवालय है जिस में सदाशिव देव के रूप में विराजमान हैं | अज्ञान का त्याग कर सोऽहं भाव से इस देवता की पूजा करनी चाहिए | अतएव यहाँ विधि निषेध, पाप-पुण्य, तथा स्वर्ग-नरक का विधान नहीं है | जैसा कि कहा है-

“देहो देवालयो देवि, जीवो देवः सदाशिवः|

त्यजेदज्ञान निर्माल्यं सोऽहं भावेन् पूजयेत्||

न विधिः न निषेधः स्यात्, न पुण्यं न च पातकम्|

न स्वर्गो नैव नरकं कौलिकानां कुलेश्वरि।।”

महानिर्वाण तन्त्र में स्पष्ट कहा है- ब्रह्म-गायत्री के जपने में काल-शुद्धि, नियम, स्थान-निरूपण, भोजन, स्नान आदि की विधि-निषेध नहीं है | अजपा का साधन भी प्रातः जगने पर तुरन्त प्रारम्भ कर देने के विधान में भी बाह्य शुद्धि की आवश्यकता नहीं है | वैसे बाह्य शुद्धि करने में भी कोई अपनी हानी नहीं होती, किन्तु यह शुद्धि बाह्य वेश-भूषा के सौन्दर्य का प्रसाधन बन कर देह अभिमान का माध्यम न बन जाए | अवधूत/कौल को लोक संग्रह के लिए शुद्ध कर्म करने की भी स्वीकृति है, निषेध नहीं |