साधको की साधना-सहचरी को शक्ति कहते हैं। पूरी शाक्तोपासना शक्ति के सहयोग पर हीं निर्भर है। शक्ति के बिना पूजन को पशु-पूजन कहा गया है।
शक्तिश्च कथ्यते देवि ! श्रृणुष्व सुरसुन्दरि।
त्रयोदशाब्दाद् ऊर्ध्वं या पञ्चविंशतिवार्षिकी।
सुन्दरी तु विशेषेण प्रसूतावाप्रसूतिका।
अवश्यं पञ्चमं कुर्यात् शक्तिमात्रे महेश्वरि।। – (शब्दकल्पद्रुमे)
सदाशिव दीक्षित ने कर्पूरस्तवराज स्तोत्र के भाष्य में शक्ति के विशद लक्षणों का वर्णन किया है, यथा-
तरुणीं सुन्दरीं रम्यां चंचलां कामलोलुपाम्।
कालीभक्तां जपासक्तां महाकामकुतूहलाम्।।
दर्शनान्मोहिनीं साध्वीं कटाक्षादिप्रमोचिनीम्।
नायिकाष्ट-तुल्य-युक्तां क्रोधमात्सर्य वर्जिताम्।।
सर्वदोषविहीनाङ्गीं विकारपरिवर्जिताम्।
जपासक्तां समासाद्य सर्वं संसाधयेत् शिवे।।
साधना के लिए शक्ति का दीक्षित होना परमावश्यक है। गन्धर्व-तन्त्र कहता है-
अदीक्षिताङ्गनासंगात् सिद्धिहानिर्भवेत् शिवे।
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन दीक्षयेन्निज कौलिनीम्।।