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शक्ति उपासना का सर्वश्रेष्ठ रुप श्रीविद्योपासना

KAULBHASKAR GURU JI

2022-09-25

शक्ति उपासना का सर्वश्रेष्ठ रुप श्रीविद्योपासना अर्थात श्रीविद्या की उपासना है। श्रीविद्या, जो मन्त्रों में मातृका, शब्दों में ज्ञान, ज्ञानों में चिन्मयातीता एवं शून्यों में शून्यसाक्षिणी है। “देव्युपनिषद्” में कहा भी गया है-

मन्त्राणां मातृका देवी शब्दानां ज्ञानरूपिणी

ज्ञानानां चिन्मयातीता शून्यानां शून्यसाक्षिणी।।

यहाँ वही जिज्ञास्य है, जो कामकला, श्रृंगारकला, पराशक्ति, शाम्भवी-विद्या, कादि-विद्या, हादि-विद्या, सादि-विद्या तथा प्रत्यक् चित्तिस्वरूपा महात्रिपुरसुन्दरी है। जो षोडशी, पञ्चदशाक्षरी कहलाती है। जो इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति एवं कुण्डलिनी है। जो कामेश्वरी, सदानन्दघना, पूर्णा एवं स्वात्मैक्यरूपा है। यह वही शक्ति है जिसकी उपासना में “इच्छा-ज्ञान-क्रियात्मक ब्रह्मग्रन्थिमत् रसतन्त्रस्य ब्रह्मनाडी” ब्रह्मसूत्र हैं, “चिदग्निस्वरूपपरमानन्द शक्तिस्फुरण” ही वस्त्र है, “चिच्चन्द्रमयी सर्वाङ्गस्रवण” ही स्नान है, “रक्तशुक्लपदैकीकरण” ही पाद्य है, “स्वच्छस्वपरिपूरणानुस्मरण” ही गन्ध है, “सच्चिदुल्काऽकाशदेहो”दीप है और “मूलाधारादाब्रह्मरन्ध्रपर्यन्तं ब्रह्मरन्ध्रादामूलाधारपर्यन्तं गतागत रूप” ही प्रादक्षिण्य है।

श्रीविद्योपासना वास्तव में उच्चतर स्तर की साधना है-

(१) जहाँ निरोध, उत्त्पत्ति, बन्धन, साधना, मुमुक्षता, मुक्ति, बद्ध, साधक, मुमुक्षु एवं मुक्त की अवधारणा भी मिथ्या हो जाती है-

न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बद्धो न च साधक:

न मुमुक्षुर्न वै मुक्त इत्येषा परमार्थता।।

(त्रिपुरातापिन्युपनिषत्)

(२) जहाँ ज्ञान-विज्ञान-तत्पर योगी धान्यार्थी की भाँति समस्त बाह्याडम्बरों का पलाल की भाँति त्याग कर देता है।

पलालमिव धन्यार्थी त्यजेद् ग्रन्थमशेषत:

(त्रिपुरातापिन्युपनिषत्)

(३) जहाँ आन्तर पूजा ही यथार्थ पूजा होती है।

(४) जहाँ मन्त्रों का पुरश्चरण, जप, बाह्य होम, बाह्य पूजा के लिए कोई स्थान नहीं है और हृत्कमल एवं सहस्रार में पूजा हीं यथार्थ पूजा है।

बाह्यापूजा न कर्तव्या कर्तव्या बाह्यजातिभि:

(सनत्कुमार संहिता)

(५) जहाँ मन्त्र-जप-जपाङ्ग, ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय, द्रष्टा-दृश्य-दर्शन, ध्याता-ध्यान-ध्येय, उपासक-उपासना-उपास्य, साधक-साधना-साध्य, देवता, ऋषि, छन्द, वर्ण, नाद, शून्य, अवस्था, मन्त्रार्थ, जगत्, ग्रह, नक्षत्र, चक्र, राशि, शक्तिचक्र, गुरु एवं भगवती महात्रिपुरसुन्दरी के मध्य स्थित सारे द्वैत ध्वस्त होकर पूर्ण सामरस्य की अनुभूति होती है।

(६) जहाँ समग्र, सार्वभौम, सर्वव्यापक एवं नित्य सामरस्य ही पूर्ण उपलब्धि होती है।

(७) जहाँ कर्म-ज्ञान-भक्ति-उपासना एवं योग अपने-अपने भेद-भाव का परित्याग करके गंगा-जमुनी संगम में रूपान्तरित होकर एक हो जाते हैं।

सारांश में “श्रीविद्या” की साधना ब्राह्मीभाव, ब्रह्माद्वैत एवं पञ्चकृत्यकारी परमशिव की विमर्शस्वरूपा आत्मशक्ति की साधना है।