कुलशास्त्र में वर्णित उर्ध्वाम्नाय:
वेदशास्त्रपुराणानि प्रकाश्यानि कुलेश्वरि।
शैवशाक्तागमा: सर्वे रहस्या: परिकीर्त्तिता:।।
वेद, शास्त्र और पुराण आदि सभी सर्वत्र प्रकाशन के योग्य हैं। किन्तु शाक्त और शैव जितने आगम हैं, वे सर्वप्रकाश्य नहीं माने जाते। उन्हे इसी आधार पर रहस्यशास्त्र कहते हैं। जहाँ तक कुलशास्त्रों का प्रश्न है, ये केवल रहस्य हीं नही, अपितु रहस्यातिरहस्य शास्त्र माने जाते हैं।
उर्ध्वाम्नायस्य तत्त्वं हि पूर्णब्रह्मात्मकं परम्।
सुगोपितं मया यत्नादिदानीन्तु प्रकाश्यते।।
रहस्यातिरहस्यों मेॆ भी यदि कोई अवशिष्ट रहस्य शेष रहता है, तो उसी रहस्य का उद्घाटन इन कुलशास्त्रों से होता है। इसे इसी आधार पर उर्ध्व सर्वतोभावेन शिखर रूप आम्नाय रूप उर्ध्वाम्नाय संज्ञा से विभूषित करते हैं। यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि, यह पूर्ण परब्रह्मात्मक पराविद्याओं में श्रेष्ठ सुसम्यक्तया गोप्यतम विद्या है।
मम पञ्चमुखेभ्यश्च पञ्चाम्नाया: समुद्गता:।
पूर्वश्च पश्चिमश्चैव दक्षिणश्चोत्तरस्तथा।
उर्ध्वाम्नायश्च पञ्चैते मोक्षमार्गा: प्रकीर्त्तिता:।।
मेरे पाँच मुख शास्त्रों में विख्यात हैं। इसलिए मैं पञ्चवक्त्र रूप से जाना जाता हूँ।मेरे इन पाँचो मुखों से पाँच आम्नाय समुद्भूत हैं। इन्हे क्रमश: (१) पूर्वाम्नाय, (२) पश्चिमाम्नाय, (३) दक्षिणाम्नाय, (४) उत्तराम्नाय और (५) उर्ध्वाम्नाय संज्ञाओं से विॆभूषित करते हैं। ये पाँचो मोक्षमार्ग हीं माने जाते हैं। केवल मुमुक्षु को ही इनके स्वाध्याय का अधिकार हैॆ।
चतुराम्नायवेत्तारो बहव: सन्ति कामिनि।
उर्ध्वाम्नायस्य तत्त्वज्ञा विरला वीरवन्दिते।।
चतुराम्नायों के वेत्ताओं अर्थात् जानने वालों की कोई उर्ध्वाम्नाय के जानकार रहस्यदर्शी विरल हीं हैं, खोजने पर भी ये जल्दी नहीं मिलते।
चतुराम्नायविज्ञानाद् उर्ध्वाम्नाय: पर: प्रिये।
तस्मात् तदेव जानीयाद् यदीच्छेत् सिद्धिमात्मन:।।
चारों आम्नायों के विज्ञान से बहुत हीं उच्च श्रेणी का विज्ञान उर्ध्वाम्नाय का है। एक तरह से यह पराविज्ञान हीं है। यदि कोई अपने कल्याण की इच्छा रखता है तो उसे उर्ध्वाम्नाय विज्ञान का हीं आश्रय लेना चाहिए।
एकाम्नायश्च यो वेत्ति स मुक्तो नात्र संशय:।
किं पुनश्चतुराम्नायवेत्ता साक्षाच्छिवो भवेत्।।
एक आम्नाय को भी जो विधिपूर्वक सारहस्य जान लेता है, वह जानकार पुरुष धन्य है। वह नि:संशय रूप से मुक्त है। चारों आम्नायों के जानकार की बात हीं नहीं करनी है। वह तो साक्षात् शिव है। इसमें संदेह नहीं।
उर्ध्वतत्त्वात् कुलेशानि ध्वस्तसंसार- सागरात्।
उर्ध्वलोकैकसेव्यत्वाद् उर्ध्वाम्नाय इति स्मृत:।।
उर्ध्व तत्त्व का परिज्ञान उर्ध्वाम्नाय से होता है। इसको जान लेने से संसार सागर के ध्वस्त होने में देर नहीं लगती। इसको अच्छी तरह से ज्ञान प्राप्त कर लेने पर साधक उर्ध्व से भी उर्ध्व लोकों में ही अवस्थान प्राप्त कर लेता है।
तस्माद्देवेशि जानीहि साक्षान्मोक्षैक साधनम्।
सर्वाम्नायाधिकफलम् उर्ध्वाम्नायं परात्परम्।।
यह उर्ध्वाम्नायसिद्ध विज्ञान भोग और मोक्ष दोनो को साथ-साथ प्रदान करने का एकमात्र साधन है। सभी अन्य आम्नायों की अपेक्षा इसका आचरण अधिक फलप्रद है। यह परात्पर विज्ञान है।
आम्नायं यो नरो देवि विजानाति च तत्त्वत:।
लभते काङ्क्षितां सिद्धिं सत्यं सत्यं वरानने।।
जो पुरुष इस उर्ध्वाम्नाय रहस्य-विज्ञान को तात्त्विकता के सहित जान लेता है, वह अवश्य ही इच्छित सिद्धि को प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है। यह नितान्त सत्य सत्य है।
न वेदैर्नागमै: शास्त्रैर्नपुराणै: सुविस्तरै: ।
न यज्ञैर्न तपोभिर्वा न तीर्थव्रतकोटिभि:।
नान्यैरुपायैर्देवेशि मन्त्रौषधिपुर:सरै:।
आम्नायो ज्ञायते चोर्ध्व: श्रीमद्गुरुमुखम् विना।।
न वेदों के माध्यम से, न आगमिक (तन्त्र) विज्ञान के जानकार होने से, न अन्यान्य शास्त्रों के द्वारा और न अत्यन्त विस्तार पूर्वक लिखे गये पुराणों से, न यज्ञों से, न किन्हीं तपस्याओं के माध्यम से, न हीं करोड़ो तीर्थों और व्रतों के आचरण से अथवा अनन्त प्रकार की अौषधियों और मन्त्र-प्रयोगों से या किसी अन्य प्रकार से भी उर्ध्वाम्नाय का ज्ञान नहीं हो सकता। इसका ज्ञान एकमात्र गुरुदेव के मुखारविन्द रूप वाक्यों से और दीक्षा से प्राप्त ज्ञान से ही हो सकता है।
उर्ध्वाम्नायं विजानाति य: सम्यक् श्रीगुरोर्मुखात्।
शास्त्रमार्गेण स नरो जीवन्मुक्तो न संशय:।।
जो शिष्य गुरुमुख से उर्ध्वाम्नाय विज्ञान को विशेष रूप से जान लेता है, वह शास्त्र के मार्गश्रयण से ही निश्चित रूप से जीवन्मुक्त हो जाता है, इसमें संदेह नहीं। इसमें संशय नहीं।